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Thursday, 29 December 2011

☆ लाओत्से : ओशो के नजरिये से ☆ Confucious V/S Lao Tzu





☆ लाओत्से : ओशो के नजरिये से ☆

Confucious V/S Lao Tzu

मुझसे अक्सर ही लोग पूछते हैं कि लाओत्से पर बोलना मैने क्यों चुना ? कुछ जरूरी कारण से। एक तो लाओत्से की पूरी परंपरा करीब-करीब नष्ट होनेकी स्थिति में है, चीन लाओत्से की सारीव्यवस्था को, चिंतनाको, उसके आश्रमों को,उसके संन्यासियों को आमूल नष्ट करने में लगा है। एक बहुत पुराना संघर्ष। कोई तीन हजार वर्ष चीन में दो जीवनधाराएं थीं, एक कनफ्यूशियस की और एक लाओत्से की। बहुत गहरे में देखें तो दुनिया मेंजितनी विचारधाराएं हैं, उनको इन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। कनफ्यूशियस मानता है नियम को, व्यवस्था को, शासन को, संस्कृति को। लाओत्से मानता है प्रकृति को; संस्कृति को नहीं, नियम को नहीं स्वभावकी अराजकता को; व्यवस्था को नहीं, सहज स्फूरणा को; अनुशासन को नहीं–क्योंकि सभी अनुशासन, वह जो जीवन का स्वभाव है, उसे नष्ट करता है–वरन सहज प्रवाह को।
दुनिया की सारी चिंतनधाराएं दो हिस्सों में बांटी जा सकती हैं : एक वे जो मनुष्य को अच्छा बनाना चाहती हैं और एक वे जो मनुष्य को सहज बनाना चाहती हैं। एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती हैं; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श, जिसके अनुकूलमनुष्य को ढालना है।और एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती है; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श जिसके अनुकूल मनुष्य को ढालना है।और एक वे जो मनुष्य को स्वाभाविक बनाना चाहती हैं; कोई कोई आदर्श नहीं, कोई प्रतिमा नहीं, जिसकेअनुकूल मनुष्य को ढालना है।
लाओत्से दूसरी परंपरा में अग्रणी है। लाओत्से के समय में भी उसके विचार को नष्ट करने का बहुत उपाय किया गया।कनफ्यूशियस को मानने वालों ने सब तरह से, उस विचार का अंकुर ही न पनप पाए, इसकी चेष्टा की। क्योंकि कनफ्यूशियसके लिए इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता।
लाओत्से कहता है कोईनियम नहीं, क्योंकि सभी नियम विकृत हैं।लाओत्से कहता है स्वभाव, सहजता, ऐसा बहे मनुष्य जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। रास्ते बनाने की जरूरत नहींहै, क्योंकि सभी रास्ते मनुष्य के साथ जबरदस्ती करते हैं। और नियम देना खतरनाक है, क्योंकि सभी नियम हिंसा करतेहैं। लाओत्से कहता है कि अगर मनुष्य को उसके आंतरिकतम केंद्र के अनुसार छोड़ दिया जाए तो जगत में कुछ भी बुरा न होगा। मनुष्य को अच्छा बनाने की जरूरत नहीं है, मनुष्य को उसके आंतरिक स्वभाव के साथ छोड़ देने की जरूरत है। चेष्टा कीजरूरत नहीं है, क्योंकि चेष्टा विकृति में ले जाएगी।
स्वभावतः, कनफ्यूशियस को अति कठिन थी यह बात। और कनफ्यूशियस के चिंतन में तो लगेगा कि यह आदमी सारे जगत को अराजकता में ले जाएगा, अनार्की में, और यह आदमी तो सब नष्ट कर देगा। समाज, संस्कृति, इस सबका क्या होगा ? नीति, सदाचार, नियम ? तीन हजार साल से कनफ्यूशियस के मानने वाले लाओत्से के संन्यासियों को, उसके शास्त्रों को, उसकी धारा में बहने वाले लोगों को, सब तरह से उनकी जड़ें न जम पाएं चीन में, इसकी चेष्टा में लगे रहे थे।

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