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Friday, 30 December 2011

☆ ध्यान :जब भी आपको समय मिले ☆



जब भी आपको समय मिले, कुछ मिनटों के लिये अपनी श्वास-प्रक्रिया को शिथिल कर दें, और कुछ नहीं―पूरे शरीर को शिथिल करने की कोई आवश्यकता नहीं। रेलगाड़ी में बैठे हों या हवाई जहाज में, या फिर कार में, किसी को पता नहीं लगेगा की आप कुछ कर रहे हैं। बस अपनी श्वास-प्रक्रिया को शिथिल कर लें। जब यह सहज हो जाये तो इसे होने दें। तब आंखें बंद कर लें और इसे देखें- श्वास भीतर जा रही है, बाहर जा रही है, भीतर जा रही है...



एकाग्र न करें! यदि आप एकाग्र करते हैं तो आप समस्या पैदा करते हैं क्योंकि तब सब कुछ बाधा बन जाता है। यदि कार में बैठे हुए तुम एकाग्र होने की कोशिश करते हो तो कार का शोर बाधा बन जाता है, आपके पास बैठा व्यक्ति बाधा बन जाता है।



ध्यान एकाग्रता नहीं है। यह मात्र जागरण है। आप बस विश्रांत हो जायें और श्वास को देखें। उस देखने में सब कुछ शामिल है। कार शोर कर रही है―बिलकुल ठीक, इसे स्वीकार करें। ट्रैफिक चल रहा है―ठीक है, जीवन का हिस्सा है। तुम्हारा सहयात्री तुम्हारे साथ बैठा खर्राटे ले रहा है, इसे स्वीकारें। कुछ भी नकारना नहीं।
~ Osho

Thursday, 29 December 2011

☆ सच्चे फकीर अलहिल्लाज मंसूर की मार्मिक कहानी ☆





☆ सच्चे फकीर अलहिल्लाज मंसूर की मार्मिक कहा
नी ☆
मंसूर ईरान में पैदा हुए थे | फिर यह बसरा और बग़दाद में हज़रतजुनैद बगदादी की सोहबत में रहे |जुनैद इनसे कहते थे कि एक दिन वह आएगा जब लकड़ी का एक सिरा तेरे खून से लाल होगा | तब यह कहते थे कि हाँ यह जरुर होगा पर उससे पहले आपको यह फकीराना लिबास उतार फेंकना होगा | लकड़ी के एक सिरे के लाल होने का मतलब सूली पर चढ़ने से था | इन्होने अपना नाम '' हुसैन बिन मंसूर '' मतलब कि मंसूर का बेटा मंसूर रखा था |
इनका पूरा नाम '' हुसैन बिन मंसूर अल हलाज'' था |
यह बहुत बड़े विद्वान् थे | देश देश घूमते रहते थे | पूरे एक साल तक बिना कपडों के रहकर इन्होने सर्दी और गर्मी में तपस्या की |
कहते हैं कि इनका शरीर पिघलने लगा था , फिर भी यह तेज़ धूप में खड़े रहे |
एक बार यह हिन्दुस्तान भी आये थेपर अंत में बग़दाद में रहने लगे| खुदा का इनपर ऐसा नशा था कि एक बार यह '' अनलहक , अनलहक '' कहने लगे , जिसका मतलब है कि- '' मैं ही सच हूँ'' | सबने इन्हें काफिर बताया यह सोचकर कि यह अपने को खुदा बताता है | पर यह नहीं माने --कहते थे कि '' मैं वही हूँ जो कि मुझमें है , इसलिए जब तुम लोग मुझे देखते हो इसका मतलब उस खुदाको देखते हो , इसलिए मैं खुदा का ही तो रूप हूँ '' | मौलवियों ने फतवा जारी किया कि यह काफिर है , इसे सूली पर चढाया जाए | इन्हें कैद खाने में बंद किया गया | खलीफा ने कहा कि जब तक जुनैद बगदादी नहीं लिख देंगे कि यह कत्ल के योग्य है , मैं फतवे पर दस्तखत नहीं करूँगा | तब जुनैद बगदादी को बुलाया गया | उन्होंने परेशान होकर अपने फकीराना कपडे फाड़ दिए और विद्वानों वाले कपडे पहन लिए | फिर हुक्म की तामील की और लिख कर दिया कि '' बाहरी हालात को देखकर कत्ल का फतवा जारी किया जाता है पर अन्दर का हाल खुदा जानता है ''| इस तरह मंसूर की भविष्यवाणी सच साबित हुई |
जब यह कैद में थे लोगों ने बड़े चमत्कार देखे | इन्होने दीवार की तरफ उंगली की और दीवार फट गयी| सब आजाद हो गए और पूछने लगे कि आप यहाँ क्यूँ पड़े हैं ? तब मंसूर ने कहा कि मैं खुदा का कैदी हूँ , इसलिए आजाद नहीं हो सकता | तुम तो एक इंसान के कैदी हो इसलिए आजाद हो सकते हो | सन् ३०९ हिजरी में इन्हें सूली पर चढाया गया | बग़दाद में इतनी भीड़ थी कि हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता था | पहले इन्हें १००० कोड़े मारे गए | फिर भी प्राण नहीं निकले तब २००० कोड़े मारे गए | इन्होने सब सहन किया | अंत में सूली पर अपनी जान देनी पड़ी | सच का रास्ता बहुत कठिन होता है | जब इन्हें सूली पर चढाया जा रहा था तब किसी ने पूछा कि इश्क किसे कहते हैं ? इन्होने कहा कि ''आज , कल और परसों देख लेना '' , मतलब कि आज सूली पर लटकाया जायेगा , कल जनाजा उठेगा और परसों उसकी ख़ाक उडाई जायेगी , तब देख लेना कि सच्चा इश्क क्या होता है ? इन्होने सूली को चूमा और कहा कि यह तो खुदा तक पहुँचने कि सीढ़ी है | लोगों ने पत्थर मारने शुरू किये | इन्होने उफ़ तक नहीं की | हज़रत शिबली ने एक फूल मारा और इनकी आह निकल पड़ी |
सबके पूछने पर इन्होने कहा कि लोग नहीं जानते कि वह क्या कर रहे हैं पर शिबली जानते हैं , इसलिए उनका यह फूल भी मुझपर भारीहै | आज लोग गोलियां चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, बेक़सूर लोगों का खून बहाते हैं , क्यूंकि वह अनजान हैं | वह नहीं जानते कि वह कौन सा गुनाह कर रहे हैं | अगर जानते होते तो फूल भी किसी के ऊपर सोच समझ कर फेंकते कि इससे भी चोट लग सकती है और वह पत्थरों और गोलियों से कहीं ज्यादा दर्द देती है | हर इंसान में खुदा या ईश्वर छुपा है , उस पर गोली चलाना मतलब कि खुदा की या भगवान की बे-अदबी करना है |
जब इनके प्राण निकल गए तब इनके शरीर से खून टपकने लगा और उस खूनसे ज़मीन पर '' अनलहक '' लिख गया | है न अचम्भे कि बात ? तब लोग घबरागए और लाश को जला दिया | कहते हैंकि राख में से भी '' अनलहक '' की आवाज़ आ रही थी | लोग डर गए और राख को दजला नदी में डाल दिया | अनलहक की आवाज़ फिर से आने लगी और नदी में बाढ़ आ गयी | पूरा बगदाद शहर डूबने को था | मगर फकीर को पहले से ही पता था और उन्होंने अपने एक शिष्य से कह रखा था कि ऐसा होगा तब तुम मेरा कुर्ता दजला में डाल देना | उसने ऐसा ही किया ,पानी नीचे उतर गया |
सही मायने में मंसूर सच्चे फकीर थे |
A. P®AGYA » 4 U ♥

☆ लाओत्से : ओशो के नजरिये से ☆ Confucious V/S Lao Tzu





☆ लाओत्से : ओशो के नजरिये से ☆

Confucious V/S Lao Tzu

मुझसे अक्सर ही लोग पूछते हैं कि लाओत्से पर बोलना मैने क्यों चुना ? कुछ जरूरी कारण से। एक तो लाओत्से की पूरी परंपरा करीब-करीब नष्ट होनेकी स्थिति में है, चीन लाओत्से की सारीव्यवस्था को, चिंतनाको, उसके आश्रमों को,उसके संन्यासियों को आमूल नष्ट करने में लगा है। एक बहुत पुराना संघर्ष। कोई तीन हजार वर्ष चीन में दो जीवनधाराएं थीं, एक कनफ्यूशियस की और एक लाओत्से की। बहुत गहरे में देखें तो दुनिया मेंजितनी विचारधाराएं हैं, उनको इन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। कनफ्यूशियस मानता है नियम को, व्यवस्था को, शासन को, संस्कृति को। लाओत्से मानता है प्रकृति को; संस्कृति को नहीं, नियम को नहीं स्वभावकी अराजकता को; व्यवस्था को नहीं, सहज स्फूरणा को; अनुशासन को नहीं–क्योंकि सभी अनुशासन, वह जो जीवन का स्वभाव है, उसे नष्ट करता है–वरन सहज प्रवाह को।
दुनिया की सारी चिंतनधाराएं दो हिस्सों में बांटी जा सकती हैं : एक वे जो मनुष्य को अच्छा बनाना चाहती हैं और एक वे जो मनुष्य को सहज बनाना चाहती हैं। एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती हैं; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श, जिसके अनुकूलमनुष्य को ढालना है।और एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती है; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श जिसके अनुकूल मनुष्य को ढालना है।और एक वे जो मनुष्य को स्वाभाविक बनाना चाहती हैं; कोई कोई आदर्श नहीं, कोई प्रतिमा नहीं, जिसकेअनुकूल मनुष्य को ढालना है।
लाओत्से दूसरी परंपरा में अग्रणी है। लाओत्से के समय में भी उसके विचार को नष्ट करने का बहुत उपाय किया गया।कनफ्यूशियस को मानने वालों ने सब तरह से, उस विचार का अंकुर ही न पनप पाए, इसकी चेष्टा की। क्योंकि कनफ्यूशियसके लिए इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता।
लाओत्से कहता है कोईनियम नहीं, क्योंकि सभी नियम विकृत हैं।लाओत्से कहता है स्वभाव, सहजता, ऐसा बहे मनुष्य जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। रास्ते बनाने की जरूरत नहींहै, क्योंकि सभी रास्ते मनुष्य के साथ जबरदस्ती करते हैं। और नियम देना खतरनाक है, क्योंकि सभी नियम हिंसा करतेहैं। लाओत्से कहता है कि अगर मनुष्य को उसके आंतरिकतम केंद्र के अनुसार छोड़ दिया जाए तो जगत में कुछ भी बुरा न होगा। मनुष्य को अच्छा बनाने की जरूरत नहीं है, मनुष्य को उसके आंतरिक स्वभाव के साथ छोड़ देने की जरूरत है। चेष्टा कीजरूरत नहीं है, क्योंकि चेष्टा विकृति में ले जाएगी।
स्वभावतः, कनफ्यूशियस को अति कठिन थी यह बात। और कनफ्यूशियस के चिंतन में तो लगेगा कि यह आदमी सारे जगत को अराजकता में ले जाएगा, अनार्की में, और यह आदमी तो सब नष्ट कर देगा। समाज, संस्कृति, इस सबका क्या होगा ? नीति, सदाचार, नियम ? तीन हजार साल से कनफ्यूशियस के मानने वाले लाओत्से के संन्यासियों को, उसके शास्त्रों को, उसकी धारा में बहने वाले लोगों को, सब तरह से उनकी जड़ें न जम पाएं चीन में, इसकी चेष्टा में लगे रहे थे।

* विश्व के अनूठे प्रयोग जे. कृष्णमूर्ति *






* विश्व के अनूठे प्रयोग जे. कृष्णमूर्ति *

मैडम ब्लावटस्की इस सदी में आकल्ट (पराविज्ञान) के संबंध में जानने वाली शायद सबसे गहरी समझदार महिला थी। उसके बाद एनीबेसेंट, लीडबीटर आदि थियोसॉफिकल सोसायटी के सदस्यों के पास कुछ समझ थी जो इस सदी में बहुत कम लोगों के पास थी।
... इन लोगों का प्रयास था कि बुद्ध के उन तीन शरीर को जो शक्ति दी गई थी उसके क्षीण होने का समय आ रहा है। अगर मैत्रेय जन्म नहीं लेता, तो वह शरीर बिखर सकते हैं और उनको इतने जोर से फेंका गया था वह अब उनका समय पूरा होने वाला है और किसी को अब तैयार होना चाहिए कि वह उन तीन शरीरों को धारण कर ले। जो व्यक्ति भी उन तीन शरीरों को धारण कर लेगा, वह ठीक अर्थ में बुद्ध का पुनर्जन्म होगा- अर्थात्‌ बुद्ध की आत्मा नहीं लौटेगी, इस व्यक्ति की आत्मा बुद्ध के शरीर ग्रहण करके बुद्ध का काम करने लगेगी- एकदम बुद्ध के काम में संलग्न...जे. कृष्णमूर्ति पर वहीं प्रयोग किया गया था।
कृष्णमूर्ति के एक बड़े भाई थे नित्यानंद। पहले उन पर भी वहीं प्रयोग किया गया, लेकिन नित्यानंद की मृत्यु हो गई। वह मृत्यु इसी में हुई, क्योंकि यह बहुत अनूठा प्रयोग था और इस प्रयोग को आत्मसात करना एकदम आसान बात नहीं थी। कोशिश की गई कि नित्यानंद के तीन शरीर खुद केतो अलग हो जाएँ और मैत्रेय बुद्धके तीन शरीर उनमें प्रवेश प्रवेश कर जाएँ। नित्यानंद तो मर गए फिर कृष्णमूर्ति पर भी वहीप्रयोग चला। वह भी कोशिश यही थी कि इनके तीन शरीर हटा दिए जाएँ और रिप्लेस कर दिए जाएँ।
जे. कृष्णमूर्ति के साथ संभावना थी कि शायद वे तीन शरीर उनमें प्रवेश कर जाते। उनके पास इतनी पात्रता थी, लेकिन इतना व्यापक प्रचार किया गया। प्रचार शुभ दृष्टि से किया गया था कि जब बुद्ध का आगमन हो तो वे फिर से रिकग्नाइज हो सकें (पहचाने जा सकें) और यह प्रचार इसलिए किया गया था कि बहुत से लोग हैं जो बुद्ध के वक्त में जीवित थे, उनकी स्मृति जगाई जा सके तो वे पहचान सकें कि यह आदमी वही है कि नहीं है, लेकिन वह प्रचार घातक सिद्ध हुआ और उस प्रचार ने जे. कृष्णमूर्ति के मन में एक रिएक्शन और प्रतिक्रिया को जन्मदे दिया।
.. कृष्णमूर्ति ने अपना शरीर छोड़ने से इनकार कर दिया और इसलिएबड़ी भारी असफलता इस सदी में आकल्ट साइंस को मिली। इतना बड़ा एक्सपेरीमेंट भी कभी नहीं किया गया था। तिब्बत को छोड़कर कहीं भीनहीं किया गया था। तिब्बत में बहुत दिनों से उस प्रयोग को करतेरहे हैं, और बहुत सी आत्माएँ वापस दूसरे शरीरों से काम करती रही हैं।

☆ ओशो के मयकदा मेँ : आदिगुरु शंकराचार्य ☆

ओशो के मयकदा मेँ : आदिगुरु शंकराचार्य

जगतगुरु शंकराचार्य की सारी वाणी में 'भज गोविन्दम्' से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। क्योंकि शंकर मूलतः दार्शनिक हैं। उन्होंने जो लिखा है, वह बहुत जटिल है; वह शब्द, शास्त्र, तर्क, ऊहापोह, विचार है। लेकिन शंकर जानते हैं कि तर्क, ऊहापोह और विचारसे परमात्मा पाया नहीं जा सकता; उसे पाने का ढंग तो नाचना है, गीत गाना है; उसे पाने का ढंग भाव है, विचार नहीं; उसे पाने का मार्ग हृदयसे जाता है, मस्तिष्क से नहीं। इसलिए शंकर ने ब्रह्म-सूत्र के भाष्य लिखे, उपनिषदों पर भाष्य लिखे, गीता पर भाष्य लिखा, लेकिन शंकर का अंतरतम तुम इन छोटे-छोटे पदों में पाओगे। यहां उन्होंने अपने हृदय को खोल दिया है। यहां शंकर एक पंडित और एक विचारक की तरह प्रकट नहीं होते, एक भक्त की तरह प्रकट होते हैं।
'हे मूढ़, गोविन्द को भजो, गोविन्द को भजो, क्योंकि अंतकाल के आने पर व्याकरण की रटन तुम्हारी रक्षा न करेगी।'
'हे मूढ़, गोविन्द को भजो।'
मूढ़ता क्या है? शंकर तुम्हेंमूढ़ कह कर कोई गाली नहीं दे रहे हैं। अत्यंत प्रेमपूर्ण वचन है उनका यह।
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
'हे मूढ़, भगवान को भज, गोविन्दको भज।'
मूढ़ता का क्या अर्थ है? मूढ़ता का अर्थ समझो।
मूढ़ता का अर्थ अज्ञानी नहीं है; मूढ़ता का अर्थ है: अज्ञानी होते हुए अपने को ज्ञानी समझना। मूढ़ता पंडित के पास होती है, अज्ञानी के पास नहीं। अज्ञानी को क्या मूढ़ कहना! अज्ञानी सिर्फ अज्ञानी है--नहीं जानता, बात सीधी-साफ है। और कई बार ऐसा हुआ है कि नहीं जानने वाले नेजान लिया और जानने वाले पिछड़ गए; क्योंकि जो नहीं जानता है, उसका अहंकार भी नहीं होता; जो नहीं जानता है, वह विनम्र होता है; जो नहीं जानता है, नहीं जानने के कारणही उसका कोई दावा नहीं होता।
लेकिन, पंडित बिना जाने जानता है कि जानता है। शब्द सीख लिए हैं उसने; ग्रंथों काबोझ उसके सिर पर है। वह दोहरासकता है व्याकरण के नियम। उन्हीं में डूब जाता है।
अंतकाल के आने पर, मृत्यु के आने पर, कितनी तुम भाषा जानतेहो या कितनी भाषाएं जानते हो,कितना व्याकरण जानते हो--कुछभी तो काम न पड़ेगा।
जो मौत में काम आ जाए, वह प्रज्ञा; और जो मौत में काम न आए, वह पांडित्य। मौत कसौटी है। तो जो भी तुम जानते हो, उसको इस कसौटी पर कसते रहना, कहीं भूल न हो। यह कसौटी सदा सामने रखना। जैसे सर्राफ कसता रहता है पत्थर पर सोने को, ऐसे इस कसौटी को रखे रहना सदा: जो मौत में काम आए, उसी को ज्ञान मानना; जो मौत में काम न आए, धोखा दे जाए, दगा दे जाए, उसे पांडित्य समझना।
और जो मौत में काम न आए, वह जीवन में क्या खाक काम आएगा! जो मौत तक में काम नहीं आता, वह जीवन में कैसे काम आ सकता है? क्योंकि मौत जीवन की पूर्णाहुति है; वह जीवन का चरम शिखर है; वह जीवन का समारोप है। जो मौत में काम आता है, वही जीवन में भी काम आता है। यद्यपि जीवन में धोखा देना आसान है, लेकिन मौतमें धोखा देना असंभव है। मौत तो सब उघाड़ कर सामने रख देगी।
शंकर किसे मूढ़ कहते हैं? उसे मूढ़ कहते हैं, जो जानता तो नहीं है, लेकिन व्याकरण को रटलिया है; शब्द का ज्ञाता हो गया है; शास्त्र से जिसकी पहचान हो गई है; जो शास्त्र को दोहरा सकता है, पुनरुक्त कर सकता है; शास्त्र की व्याख्या कर सकता है।
पंडित को मूढ़ कह रहे हैं शंकर। अगर पंडित को मूढ़ न कहते होते, तो 'हे मूढ़, गोविन्द को भजो, गोविन्द को भजो, क्योंकि अंतकाल के आने पर व्याकरण की रटन तुम्हारी रक्षा न करेगी', अचानक व्याकरण को याद करने की जरूरत नहीं थी। मूढ़ थोड़े ही--जिनको हम मूढ़ कहते हैं, अज्ञानी--वे थोड़े ही व्याकरणरट रहे हैं। पंडित रट रहा है।और भारत में यह बोझ काफी गहराहो गया है। यह इतना गहरा हो गया है कि करीब-करीब हर आदमी को यह खयाल है कि वह परमात्माको जानता है, क्योंकि परमात्मा शब्द को जानता है।
ध्यान रखना, परमात्मा शब्द परमात्मा नहीं है, न पानी शब्द पानी है। और प्यास लगी हो तो शब्द काम न आएगा, पानी चाहिए। और मौत सामने खड़ी हो तो अमरत्व के सिद्धांत काम न आएंगे, अमृत का स्वाद चाहिए

~ ओशो ,

☆ ओशो के नजरिये से : श्री कृष्ण ☆

ओशो के नजरिये से : श्री कृष्ण

कृष्ण अकेले हैं, जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वाकीर कर लेते हैं, उसकी ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर… कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते ही हँसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्यजाति के इतिहास में जन्म लेकर हँसा है। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हँसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हँसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है.....

जीन में किसी से भागना नहीं है और जीवन में किसी को छोड़ना नहीं है, जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है। उसको जो समग्रता से जीता है, वह जीवन को पूर्णता को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि भविष्य के संदर्भ में कृष्ण का बहुत मूल्य है और हमारा वर्तमान रोज उस भविष्य के करीब पहुँचता है, जहाँ कृष्ण की प्रतिमा निखरती जाएगी और एक हँसता हुआ धर्म, एक नाचता हुआ धर्म जल्दी निर्मित होगा। तो उस धर्म की बुनियादों में कृष्ण का पत्थर जरूर रहने को है।

☆ ओशो के नजरिये से : प्रेम ☆

☆ ओशो के नजरिये से : प्रेम ☆

प्रेम सबसे बड़ी कला है। उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है। सब ज्ञान उससे छोटे हैं। क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो बाहर-बाहर से; प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो। और परमात्मा अगरकहीं छिपा है तो परिधि पर नहीं, केंद्र में छिपा है।
और एक बार जब तुम एक व्यक्ति के अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है; वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के कामआती है। तुमने अगर एक को प्रेम करना सीख लिया तो तुम उस एक के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए। वही तुम्हें एक दिन परमात्मातक पहुंचा देगी।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम मंदिर है। लेकिन तैयार मंदिर नहीं है। एक-एक कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा। रास्ता पहले से पटा-पटाया तैयार नहीं है, कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ। चलोगे एक-एक कदम और चल-चल कर रास्ता बनेगा--पगडंडी जैसा। खुद ही बनाओगे, खुद ही चलोगे। इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूं,मैं प्रेम के पक्ष में हूं। और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुख में उतार दिया हो तो अपनी भूल स्वीकार करना, प्रेम की नहीं। क्योंकि बड़ा खतरा है अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली। तो यह मैं जानता हूं कि तुम साधु-संतों की बातों में पड़ कर छोड़ दे सकते होप्रेम का मार्ग, क्योंकि वहां तुमने दुख पाया है। तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे; लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी।कैसे तुम चढ़ोगे? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए! गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए। चढ़ोगे कैसे? गिरोगे नहीं, यह तो पक्का है।
जिसको हम सांसारिक कहते हैं, गृहस्थ कहते हैं, वह गिरता है सीढ़ी से; जिसको हम संन्यासी कहते हैं पुरानी परंपरा-धारणा से, वह सीढ़ी छोड़ कर भाग गया। मैं उसको संन्यासी कहता हूं जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा; अपने को बदलना शुरू किया, और जिसने प्रेम से ही, प्रेम की घाटी से ही धीरे-धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की।
कठिन है। जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती; कुछ चुकाना पड़ेगा; अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा; अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा। और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है, कोई चीज कसौटी नहीं मांगती। इसलिए कमजोर भाग जाते हैं। और भाग कर कोई कहीं नहीं पहुंचता। प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा। हां, उसके पार जाना है, वहीं रुक नहीं जाना है।
~ ओशो , प्यारे सद्गुरु

रबिन्द्रनाथ टैगोर की एक खूबसूरत कविता

रबिन्द्रनाथ टैगोर की एक खूबसूरत कविता है जिसमें वे कहतेहैं -
मैं बहुत सारे जन्मों से ईश्वर की खोज करता रहा हूँ। कभी मैंने उसे दूरस्थ तारे केसमीप देखा और मैं अत्याधिक प्रसन्नता से भर गया कि भले ही तारा बहुत दूर था पर उस तक पहुँचना असंभव तो न था। और मैं उस ओर चल पड़ा लेकिन जब तक मैं वहाँ पहुँचता, ईश्वर किसीऔर स्थान की ओर चला गया। लेकिन वह अभी भी दिख रहा था, अपनी ओर आमंत्रित करता हुआ, मेरे अंदर आशा का संचार करता हुआ।
और मैं जन्मों जन्मों से इस ब्रह्मांड के चक्कर लगा रहा हूँ, ईश्वर की प्राप्ति के लिये।
एक दिन ऐसा हो गया कि मैं ईश्वर के घर पहुँच गया। मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं वहाँ पहुँच गया था। यह इतने बड़े आश्चर्य की बात थी पर मैं तब भी दरवाजे की ओर बढ़ा। जैसे ही मैं दरवाजा खटखटाने वाला था कि मेरे हाथ जड़ हो गये। मेरे अंदर एक विचार कौंधा – रुको ज़रा, सोच तो लो। दरवाजे पर यह लिखा हुआ है कि यह ईश्वर का घर है। अगर यह वास्तव में ही ईश्वर का घर हुआ तो तुम समाप्त हो गये। तुम्हारी खोज खत्म हो गयी। उसके बाद क्या करोगे?
लाखों सालों की तुम्हारी ट्रेनिंग है सिर्फ खोजने की। तुमएक खोजक की भांति तो एकदम अनुशासित हो पर प्राप्तकर्ता की तरह नहीं। यह बिल्कुल नया है तुम्हारे लिये और तुम इससे नितांत अपरिचित। और सबसे बड़ी बात…खोज उस परम की, परम ईश्वर की, जिसके परे खोजने को कुछ भी नहीं है। उसके बाद क्या करोगे? उसके बाद क्या बनोगे? और यह तो सदैव बनी रहने वाली शून्यता की स्थितिबन जाने वाली है।
वह अपने जूते अपने हाथों में ले लेता है। उसे भय था कि जब वह सीढ़ियाँ उतरता हो तो ईश्वरआहट सुनकर दरवाजा न खोल दे…। और वह बिना पीछे देखे सरपट भाग आया।
कविता बहुत खूबसूरत है क्योंकि यह आगे कहती है -
मैं उसकी खोज में पुनः लग गया हूँ। मैं उसे जान गया हूँ, उसके घर को पहचान गया हूँ अतः उधर जाने से बचने का भरकस प्रयास करता हूँ। मैं हर दिशामें जाता हूँ पर ईश्वर के घर की दिशा से दूर ही रहता हूँ क्योंकि मुझे पता है कि उससे मिलने का मतलब है मेरी समाप्ति।
बुद्धत्व कुछ और नहीं है तुम्हारे खात्मे के सिवा। यह विशुद्ध मौन के अतिरिक्त्त कुछ और नहीं है। प्राकृतिक रुप से मानव डरता है और सोचता है – बुद्धत्व न पाकर इसकी खोज में निरंतर लगे रहना ही श्रेयकर है।
यह जो कथा रबिन्द्रनाथ की कविता की मार्फत मैंने तुम्हे बतायी, यह सभी की कहानी है।
इसीलिये मैं कहता हूँ – तुम बुद्ध हो पर तुम इसे पहचानना नहीं चाहते, स्वीकृति नहीं देना चाहते।
तुम कोई ऐसा रास्ता खोजना चाहते हो जिससे कि तुम बुद्धत्व की खोज बार बार शुरु कर सको।

~ ओशो

व्यक्तित्व एक कारागृह

मैँ तुम्हेँ वापस उस बिंदु पर फेँक देना चाहता हूँ जहाँ तुम स्वाभाविक होने के विपरीत 'अच्छे ' होने शुरु हो गए । आनंदपूर्ण हो जाओ ताकि अपना बचपन फिर से पा सको। यह कठिन तो होगा, क्योँकि तुम्हेँ अपने व्यक्तित्व को एक किनारे पर छोड़ना होगा। लेकिन याद रखो, मूल तत्व तभी स्वयं को प्रकट कर सकता है जब तुम्हारा व्यक्तित्व वहां न हो, क्योँकि तुम्हारा व्यक्तित्व एक कारागृह बन गया है। उसे एक ओर हटा दो ! यह पीड़ादायी होगा, लेकिन यह पीड़ा झेलने जैसी है क्योँकि उससे तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। और कोई भी जन्म बिना पीड़ा के नहीँ होता ।

~ ओशो , प्यारे सद्गुरु

प्रेम क्या है ? What is love ?

प्रेम क्या है ?
What is love ?

प्रेम है आनन्द की अभिव्यक्ति
जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और जिसकी प्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम दे सकता है। मांग रहा है वह देनहीं सकता है। इस जगत में केवल वे लोग ही प्रेम दे सकते हैं, जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है। महावीर बुद्ध इस जगत को प्रेम दे सकते हैं। वे प्रेम से बिल्कुल मुक्त हैं। उनकी मांग बिल्कुल नहीं है। आपसे कुछ नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ दे रहे हैं।
प्रेम का अर्थ है, जहां मांग नहींहै और केवल देना है। जहां मांग है, वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिल्कुल भी नहीं है, वहां केवल लेन-देन है।यदि लेन-देन जरा-सा गलत हो जए तो जिसे हम प्रेम समझते थे, वह घृणा में परिणित हो जाएगा। लेन-देन गड़बड़ हो जाए तो मामला टूट जाएगा।
सारी दुनिया में जो प्रेम टूट जाते हैं, उसमें क्या बात है? उसमें कुल इतनी ही बात है कि लेन-देन गड़बड़ हो गई है। मतलब, हमने जितना चाहा, उतना नहीं मिला। जितना हमने सोचा था..दिया, लेकिन उसका उतना प्रतिफल नहीं मिला। सभी तरह के लेन-देन टूट जाते हैं। जहां लेन-देन है, वहां बहुत जल्दी प्रेम घृणा में परिणत हो सकता है, क्योंकि वहां प्रेम है ही नहीं। लेकिन जहां प्रेम केवल देना है, वहां शाश्वत है। वहां वह टूटता नहीं। वहां टूटने का कोई प्रश्न ही नहीं है।क्योंकि वहां मांग ही नहीं थी। आपसे कोई अपेक्षा नहीं थी। कोई कण्डीशन नहीं थी। प्रेम हमेशा अनंडीशनल है।
प्रेम केवल उस आदमी में होता हे जिसको आनन्द उपलब्ध हुआ हो। जो दुखी हो, वह प्रेम देता नहीं, प्रेम मांगता है ताकि उसका दुख मिट जाए। आखिर प्रेम की मांग क्या है? सारे दुखी लोग प्रेम चाहते हैं। उन्हें लगता है कि प्रेम मिल जाएगा तो उनका दुख मिटजाएगा, दुख भूल जाएगा। प्रेम की आकांक्षा भीतर दुख के होने का सबूत है। तो िफर प्रेम वह दे सकेगा जिसके भीतर दुख नहीं है। जिसके भीतर कोई दुख नहीं है, जिसके भीतर केवल आनन्द रह गया है,वह आपको प्रेम दे सकेगा।
मेरी बात ठीक से समझें, दुख भीतर हो तो उसका प्रकाशन प्रेम की मांग में होता है। और आनन्द भीतरहो तो उसका प्रकाशन प्रेम के वितरण में होता है। प्रेम आनन्द का प्रकाश है। तो जो आदमी भीतर आनन्द से भरेगा उसके जीवन के चारों तरफ प्रेम विकीर्ण हो जाएगा। जो भी उसके निकट आएगा उसेप्रेम उपलब्ध होगा। अगर मैं कहूं कि प्रेम आनन्द का प्रकाश है तो आनन्द आत्मबोध का अनुभव है। दुख है क्योंकि हम अपने को नहीं जानते, अपने को नहीं जानते इसलिए प्रेम मांगते हैं। अगर हम अपने को जानेंगे तो आनन्द होगा, आनन्द होगा तो प्रेम हमसे प्रस्फूटित होगा।

~ ओशो , प्यारे सद्गुरु

ध्यान क्या है ? What is meditation ?

ध्यान क्या है ?
What is meditation ?

ध्यान तो शुद्ध रूप से एक समझ है। यह प्रश्न केवल शांत होकर बैठ जाने का नहीं है। न यह प्रश्न मंत्रजाप करने का है। यह प्रश्न तो मन की सूक्ष्म कार्यविधि को समझने का है। यदि तुम मन की कार्यविधि कोएक बार समझ गये, तुम्हारे अंदर एक बहुत बड़ी जागरुकता या होश का उदय होता है, जिसका मन से कोई संबंध नहीं। इस जागरुकता का उदय तुम्हारे अस्तित्व से, तुम्हारी आत्मा से और चेतनता से होता है।
ध्यान है...खेलपूर्ण होना
ध्यान, बुद्धि या मन की कोई चीज नहीं है, वह तो बुद्धि के पार की कोई चीज है। और इसके लिये पहला कदम है, इसके प्रति खेलप्रिय होना, विनोदी होना। यदि तुम उसके साथ खेलपूर्ण हो, तो बुद्धि (मन) तुम्हारे ध्यान को नष्ट नहीं कर सकती। अन्यथा यह एक दूसरी अहंकार-यात्रा में परिवर्तित हो जायेगी। यह तुम्हें बहुत गंभीर बना देगी। तुम सोचने लगोगे कि मैं एक महान ध्यानी हूँ। यही हजारों कथित संतों नैतिकतावादियों और कट्टर धार्मिकों के साथ हुआ है, ये लोग महज अहंकार के खेल सूक्ष्म अहंकार के खेल ही खेल ही खेल रहे हैं।
इसलिये मैं प्रारम्भ ही से इसकी जड़ें काट देना चाहता हूँ। इसके बारे में विनोदप्रिय या खेलपूर्ण बने रहो। यह एक गीत है जिसे गाना है। एक नृत्य है जिसे नाचना है। इसे एक मजाक की तरह लो। यदि तुम ध्यान के बारे में खेलपूर्ण हो सके तो तुमयह देखकर हैरान हो जाओगे कि ध्यान में दिनदूनी रात चौगुनी प्रगति होगी। केवल तुम किसी लक्ष्य पाने के पीछे नहीं भाग रहे तुम केवल शांत बैठे हुए उसका उस क्षण आनंद ले रहे हो। शांत होकर बैठने का कृत्य ही उन क्षणों में आनंदित होना है। ऐसा नहीं, कि तुम किसी यौगिक शक्ति, सिद्धि या चमत्कार की चाह कर रहे हो। यह सभी बकवास है, यह सभी पुरानी व्यर्थ की बातें हैं। वही पुराना खेल, नये शब्दों और एक नये धरातल पर खेला जा रहा है...जीवन को अपने-आपमें एक गहरे मजाक की तरह लेना चाहिये-और तभी अचानक तुम तनावरहित हो जाओगे,क्योंकि यहाँ कुछ ऐसा ही नहीं, जिसके बारे में तनावपूर्ण हुआ जाये। और इसी विश्रामपूर्ण दशा में तुम्हारे अंदर कुछ परिवर्तन एक मौलिक परिवर्तन एक रूपातन्तरण होने लगता है।

~ ओशो ,

उसे खोजो और पहले उसे अपने हृदय मेँ ही सुनो ।



उसे खोजो और पहले उसे अपने हृदय मेँ ही सुनो ।
आरंभ मेँ तुम कदाचित कहोगे कि यहाँ गीत तो है नहीँ ,
मैँ तो जब ढ़ूंढ़ता हूँ तो केवल बेसुरा कोलाहल की सुनाई देता है ।
और अधिक गहरे ढ़ूँढ़ो ,
यदि फिर भी तुम निष्फल रहो तो ठहरो और भी अधिक गहरे मेँ फिर ढ़ूंढ़ो ।
एक प्राकृतिक संगीत, एक गुप्त जल - स्त्रोत प्रत्येक मानव हृदय मेँ है ।
वह भले ही ढ़का हो, बिल्कुल छिपा हो और नीरव जान पड़ता हो -- किन्तु वह है अवश्य ।
तुम्हारे स्वाभाव के मूल मेँ तुम्हेँ श्रद्धा , आशा और प्रेम की प्राप्ति होगी ।
जो पाप-पथ को ग्रहण करता है ,
वह अपने अंतरंग मेँ देखना अस्वीकार कर देता है 
अपने कान हृदय के संगीत के प्रति मूंद लेता है
और अपनी आँखो को अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है ।
उसे अपनी वासनाओँ मेँ लिप्त रहना सरल जान पड़ता है ,
इसी से वह ऐसा करता है ।
परन्तु समस्त जीवन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है ,
जिसे रोका नहीँ जा सकता ।
सचमुच गहरा पानी वहाँ मौजूद है , उसे ढ़ूँढ़ निकालो ।
इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह वाणी मौजूद है ।
उसे वहाँ ढ़ूँढ़ो और जब एक बार उसे सुन लोगे ,
तो अधिक सरलता से तुम उसे अपने आसपास के लोगोँ मेँ पहचान सकोगे । 
~ Mabel Collins

केन्द्र पर हम सब एक हैं।

मेरा पूरा प्रयास है कि किसी तरह तुम्हें भरोसा दिला दूं -अपने शब्दों से नहीं बल्कि अपने मौन तथा अपनी उपस्थिति से, अपने प्रेम तथा अपने आनंद से - कि तुम ब्रह्मांड के केन्द्र हो, तुम सब - क्योंकि केन्द्र केवल एक है। केवल परिधि पर हम अलग हैं; केन्द्र पर हम सब एक हैं।