Pages

Saturday, 7 July 2012

विपस्‍सना ध्‍यान की सरलतम विधि






विपस्‍सना ध्‍यान—


विपस्‍सना का अर्थ है: अपनी श्‍वास का निरीक्षण करना, श्‍वास को देखना। यह योग या प्राणायाम नहीं है। श्‍वास को लयबद्ध नहीं बनाना है; उसे धीमी या तेज नहीं करना है। विपस्‍सना तुम्‍हारी श्‍वास को जरा भी नहीं बदलती। इसका श्‍वास के साथ कोई संबंध नहीं है। श्‍वास को एक उपाय की भांति उपयोग करना है ताकि तुम द्रष्‍टा हो सको। क्‍योंकि श्‍वास तुम्‍हारे भीतर सतत घटने वाली घटना है।
अगर तुम अपनी श्‍वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो।
यह भी बुद्ध का बड़े से बड़ा योगदान है। उन्‍होंने श्‍वास और विचार का संबंध खोज लिया।
उन्‍होंने इस बात को सुस्‍पष्‍ट किया कि श्‍वास और विचार जुड़ हुए है।
श्‍वास विचार का शारीरिक हिस्‍सा है और विचार शरीर का मानसिक हिस्‍सा है। वह एक ही सिक्‍के के दो पहलु है। बुद्ध पहले व्‍यक्‍ति है जो शरीर और मन की एक इकाई की तरह बात करते है। उन्‍होंने पहली बार कहा है कि मनुष्‍य एक साइकोसोमैटिक, मन:शारिरिक घटना है।
–ओशो
विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां—
विपस्‍सना ध्‍यान को तीन प्रकार से किया जो सकता है—तुम्हें कौन सी विधि सबसे ठीक बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते हो।
पहली विधि—
अपने कृत्‍यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ,यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकेत हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो; तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।
अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय,उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूर होती है। नहाते समय जो शीतलता तुम्‍हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।
और तुम्‍हारे मन के विषय में भी ऐसा ही है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गूजरें बस उसके द्रष्‍टा बने रहो। तुम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भाव गूजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझों मत। उससे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्‍या अच्‍छा है, क्‍या बुरा है; वह तुम्‍हारे ध्‍यान का अंग नहीं है।
दूसरी विधि—
दूसरी विधि है श्‍वास की; अपनी श्‍वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्‍वास भीतर जाती है तुम्‍हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्‍वास बहार जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति—उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो……ओर पेट जीवन स्‍त्रोत के सबसे निकट है। क्‍योंकि बच्‍चा पेट में मां की नाभि से जूड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्‍त्रोत है। तो जब तुम्‍हारा पेट उठता है, तो यह वास्‍तव में जीवन ऊर्जा हे, जीवन की धारा है जो हर श्‍वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्‍यादा सरल है। क्‍योंकि यह एक सीधी विधि हे।
पहली विधि में तुम्‍हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है, अपने मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हे। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, ह्रदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती है।
तीसरी विधि—
जब श्‍वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।
उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो—पेट से दूसरी अति पर—नासापुट पर श्‍वास का स्‍पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्‍वास बाहर जाती है…..श्‍वास भीतर आई, श्‍वास बहार गई।
ये तीन ढंग हे। कोई भी एक काम देगा। और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना चाहों तो दो विधियां एक साथ कर सकते हो। फिर प्रयास ओर सधन हो जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों को एक साथ कर सकते हो। फिर संभावनाएं तीव्र तर होंगी। लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें सरल लगे।
स्‍मरण रखो: जो सरल है वह सही है।
–ओशो
सरल विधि—
विपस्‍सना ध्‍यान की सरलतम विधि है। बुद्ध विपस्‍सना के द्वारा ही बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए थे। और विपस्‍सना के द्वारा जितने लोग उपलब्‍ध हुए हे उतने और किसी विधि से नहीं हुए। विपस्‍सना विधियों की विधि है। और बहुत सी विधियां है लेकिन उनसे बहुत कम लोगों को मदद मिली है। विपस्‍सना से हजारों लोगों की सहायता हुई है।
यह बहुत सरल विधि है। यह योग की भांति नहीं है। योग कठिन है, दूभर है, जटिल है। तुम्‍हें कई प्रकार से खूद को सताना पड़ता है। लेकिन योग मन को आकर्षित करता हे। विपस्‍सना इतनी सरल है कि उस और तुम्‍हारा ध्‍यान ही नहीं जाता। विपस्‍सना को पहली बार देखोगें तो तुम्‍हें शक पैदा होगा, इसे ध्‍यान कहें या नहीं। न कोई आसन है, न प्राणायाम है। बिलकुल सरल घटना—सांस आ रही है, जा रही है, उसे देखना बस इतना ही।
श्‍वास-उच्‍छवास बिलकुल सरल हों, उनमें सिर्फ एक तत्‍व जोड़ना है: होश, होश के प्रविष्‍ट होते ही सारे चमत्‍कार घटते है।
–ओशो

Sunday, 26 February 2012

★ भक्ति क्या है ? ★



भक्ति यानी प्रेम–ऊर्ध्वमुखी प्रेम।
भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समाष्टि के बीच का प्रेम।
भक्ति यानी सर्व के साथ प्रेममें गिर जाना। भक्ति यानी सर्व को आलिंगन करने की चेष्टा। और, भक्ति यानी सर्व को आमंत्रण कि मुझे आलिंगन करले !
... भक्ति कोई शास्त्र नहीं है–यात्रा है।
भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है–जीवन-रस है। भक्ति को समझ कर कोई समझ पाया नहीं। भक्ति में डूब कर ही कोई भक्ति के राज को समझ पाता है।
नाद कहीं ज्यादा करीब है विचार से। गीत कहीं ज्यादा करीब है गद्य से। हृदय करीब है मस्तिष्क से।
भक्ति-शास्त्र शास्त्रों मेंनहीं लिखा है–भक्तों के हृदय में लिखा है।
भक्ति-शास्त्र शब्द नहीं सिद्धांत नहीं, एक जीवंत सत्यहै।
जहां तुम भक्त को पा लो, वहीं उसे पढ़ लेना; और कहीं पढ़ने का उपाय नहीं है।
भक्ति बड़ी सुगम है लेकिन जिनकी आँखों में आंसू हों, बस उनके लिए !
~ ओशो, प्यारे सद्गुरु

Raman Maharshi

किसी ने रमण महर्षि से पूछा , मैँ बहुत दूर से आया हूँ आप से सीखने ।
मुझे शिक्षा दीजिए ' रमण हँस दिए और बोले , यदि तुम सीखने आए तो किसी दूसरी जगह जाओ क्योँकि हम यहां सीखे को अनसीखा करते है । हम यहां सिखाते नहीँ । तुम बहुत ज्यादा जानते ही हो । यही है तुम्हारी समस्या । ज्यादा सीखने से ज्यादा समस्याएं बढ़ेगी । हम सिखाते है कैसे अनसीखा हुआ जाए , कैसे शांत हूआ जाए

संबोधि का अर्थ

अभी दो दिन पहले पश्चिम से आयी एक युवती को मैँने संन्यास मेँ दीक्षित किया । मैँने उसे नाम दिया " योग संबोधि " । और उससे पूछा कि इसका उच्चारण करना तो सरल तो होगा ना ! उसने कहा " हां , यह तो बिल्कुल अंग्रेजी के शब्द ' Somebody ' जैसा लगता है । लेकिन संबोधि इसके बिल्कुल विपरीत है । जब तुम कोई नहीँ हो जाते हो तब संबोधि घटित होती है ।
संबोधि का अर्थ है बुद्ध होना । यदि तुम कोई हो , संबोधि कभी घटित न होगी । यह कोई हूं - पन ही एक बाधा है ।
Osho

•The death of socrates• ★ OSHO ★


सुकरात मरने के करीब था । उसे जहर दिया जा रहा है । बाहर जहर पीसा जा रहा है । सुकरात लेटा हुआ है । उसके मित्र सब रो रहेँ है । और सुकरात उनसे पूछता है कि तुम रोते क्योँ हो ? तो उन मित्रोँ ने कहा , हम रोयेँ न तो और क्या करे ? तुम मरने के करीब हो । सुकरात ने कहा , पागलोँ , वह तो मैँ जिस दिन जन्मा था , उस दिन रो लेना था क्योँकि जब जन्म शुरु हुआ था तभी मौत शुरु हो गया थ...ा । जब कहानी शुरु होती है तभी उसका अन्त भी आ जाता है । जब परदे पर फिल्म शुरु होती है तभी जान लेना चाहिए कि समाप्ति भी आयेगी । अंत प्रारंभ मेँ ही छुपा हुआ है
सुकरात ने कहा कि जाओ , जल्दी से देखो , जहर तैयार हुआ या नहीँ ? सुकरात खुद उठकर बाहर गया । वह जहर पीसने वाला कहने लगा कि समय हुआ जा रहा है 6 बजे जहर देना है , अभी तक जहर तैयार नही हुआ ? वह जहर पीसने वाला कहने लगा कि मैँने बहुत लोँगो को जहर दिया पर तुम जैसा पागल आदमी नहीँ देखा । हम चाहते है कि तुम थोड़ी देर और जी लो , थोड़ी देर और श्वांसेँ ले लो । इतनी जल्दी क्या है मरने की ? सुकरात कहने लगा , जल्दी कुछ भी नहीँ है । जिन्दगी का सपना बहुत देख चुके , अब नयी कहानी मौत को भी देख लेना चाहते है इसलिए बड़ी उत्सुकता है कि जल्दी एक फिल्म खत्म हो और नयी फिल्म शुरु हो इसलिए हम पूछते है कि जल्दी करो ।
- ओशो, 

★ OSHO ★ जीवन मेँ गम्भीर उदास और मनहूस होने का कोई उपाय ही नहीँ



जीवन मेँ गम्भीर उदास और मनहूस होने का कोई उपाय ही नहीँ । मानव जीवन स्वयं मेँ परमात्मा की अमूल्य देन है जो जैसा पूर्ण है । पूर्ण होने या कुछ होने की चेष्टा ही मानव मेँ तनाव और उदासी पैदा करता है ।
मेरा पूरा जोर है कि तुम अपने भीतर छिपी हंसी और आनंद का अगाध भण्डार की अभिव्यक्त करो ।

Friday, 6 January 2012

☆ ध्यान कैसे किया जाये ? ☆

मेरे पास लोग आते हैं और पूछते हैं, ध्यान कैसे किया जाये ? मैं उनसे कहता हूँ, यह पूछने की जरूरत ही नहींहै कि ध्यान कैसे किया जाये। यह पूछो कि कैसे खाली हुआ जाये। ध्यान अविरल रूप से घटता है। यह पूछना उचित है कि कैसे बिना कुछ किये रहाजाये, क्योंकि यही सब कुछ है। यही ध्यान की पूरी तरकीब है कैसे बिना कुछ किये रहा जाये, खाली हुआ जाये। जब तुम कुछ भी नहीं करते, तभी ध्यान का पुष्प खिलता है। जब तुमकुछ भी नहीं कर रहे हो, तभी ऊर्जा केन्द्र की ओर गतिशील होती है। यह केन्द्र की ओर प्रवाहित होना शुरू हो जाती है। जब तुम कोई काम करते हो, तो ऊर्जा बाहर की ओर गति करती है।



कुछ करना, बाहर की ओर जाने का रास्ता है और कुछ न करना अंदर की ओर जाने का मार्ग है व्यस्त बने रहना एक पलायन है। तुम बाइबिल का पढ़ना भी व्यस्तता या धंधा बना लेते हो। धार्मिक और अधार्मिक धंधे में कोई भी फर्क नहीं है। सभी धंधे आखिरधंधे हैं, और वे तुम्हें, तुम्हारे अस्तित्व को बाहर से संबंधित होने में सहायक होते हैं। ये बाहर बने रहने के बहानेहैं।
मनुष्य नासमझ और अंधा है, और वह नासमझ तथा अंधा ही बने रहना चाहताहै, क्योंकि अंदर जाना उसे घोर अव्यवस्था या गड़बड़ी में प्रवेश करने जैसा लगता है। और यह ऐसा है भी। अपने अंदर तुमने ही यह सारी अव्यवस्था सृजित की है। तुम्हें उसमें से गुजर कर उससे संघर्ष करना है। जरूरत है साहसकी-अपने आपको साहसी बनाना होगा और अंदर जाने का साहस करना ही पड़ेगा। मैं अभी तक इससे बड़े किसी साहस कोनहीं जानता-जो साहस ध्यान करने के लिये होना चाहिये।
लेकिन वह लोग, जो बाहर अपने को व्यस्त रखे हुये हैं, सांसारिक या संसार के बाहर की वस्तुओं के साथ रहते हुये वे विचार करते हैं...और उन्हीं लोगों ने यह अफवाह फैला रखी है। उनके अपनी रुचि के दर्शनशास्त्री हैं, जो कहते हैं कि तुम यदि अंतमुर्खी हो, तो इसका अर्थ है-तुम्हारा स्वभाव ही बीमार बने रहने का है, तुम्हारे साथ कुछ-न-कुछ गलत जरूरहै। और ऐसे लोगों का बहुमत है। यदि तुम ध्यान करते हो, यदि तुम शांत होकर बैठते हो, तो वह तुम्हारा मजाक उड़ायेंगे कहेंगे-यह कर क्या रहे हो ? अपनी नाभि को देख रहे हो ? यहक्या कर रहो हो, क्या अपना तीसरा नेत्र खोल रहे हो ? आखिर कहाँ जा रहे हो ? क्या कुछ तबियत खराब है?...क्योंकि अंदर जाकर करोगे क्या ? अंदर कुछ भी तो नहीं है।
अधिकतर लोगों के लिये अंदर का अस्तित्व है हीनहीं जो कुछ है वह सब केवल बाहर है। और मामलाठीक इसका उलटा है-केवल अंदर ही असली है, वास्तविक है। बाहर तो कुछ भी नहीं है। जो कुछ है, वह सपना है। लेकिन वे सभी अंतर्मुखी तोगों को बीमार कहते हैं। वह ध्यान करने वालों को रोगी मानते हैं। पश्चिम में वे सोचते हैं कि पूरब थोड़ा सा अस्वस्थ है, रोगी है। आखिर अकेले बैठे हुए अंदर देखने जाने की क्या तुक है ? वहाँ जाकर तुम्हें मिलेगा क्या ? वहाँ कुछभी तो नहीं है।ब्रिटेन के महान दार्शनिक डेविड ह्यूम ने एक बार कोशिश की...क्योंकि वह उपनिषदों का अध्ययन कर रहा था, और वह कहे जाते हैं-अंदर जाओ, अंदर जाओ,अंदर जाओ, एक यही उनका संदेश है। इसलिये उसने कोशिश की। एक दिन उसने अपनी आँखें बंद कीं-वह पूरा-का-पूरा अधार्मिकव्यक्ति था, बहुत तर्कयुक्त गहरा निरीक्षण करने वाला-लेकिन ध्यानपूर्णजरा भी न था।
उसने अपनी आँखें बंद कीं और कहा-यह कितना उबा देने वाला काम है। अंदर देखने से ही ऊबाहटहोने लगती है। अंदर तो विचार चल रहे हैं, कभी-कभी कुछ भाव भी। औरअंदर तो इन्हीं की घुड़दौड़ हो रही है-और तुम उनको देखे जा रहे हो-आखिर उन्हें देखते रहने की क्या तुक है ? यह सब तो व्यर्थ हैं, इसका कोई उपयोग नअंधकार है, विचार इधर से उधर बह रहे हैं। तुम उनका करोगे क्या ? उससेनतीजा क्या निकलेगा ?
यदि ह्यूम ने थोड़ी देरतक और प्रतीक्षा की होती-हालाँकि ऐसे व्यक्ति के लिये यह करना मुश्किल था-यदि उसने थोड़ा धैर्य रखा होता, तो धीमे-धीमे विचार और भाव गायब हो जाते। लेकिन यदि उसके साथ ऐसा होता तो वह कहता, ‘‘यह तो और भी खराबहै, क्योंकि अब तो सब खाली-खाली है। कम-से-कमपहले विचार तो थे। देखने, विचार करने और व्यस्त बने रहने के लिये कुछ तो साथ था। अब तो विचार भी गायब हो गये, केवल खालीपन या शून्यता रह गई....इस खालीपन का किया क्या जाये ? यह तो पूरी तौर से अनुपयोगी है।
लेकिन यदि उसने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की होती, तो अंधकार भी मिट जाता। यह ठीक इसी तरह है जैसे तुम चिलचिलाती धूप से घर के अंदर प्रवेश करो तो हर जगह अंधेरा ही लगता है, क्योंकि तुम्हारी आँखों को कम रोशनी से तालमेल बिठाने के लिये कुछ समय चाहिये। वे बाहर की धूप पर स्थिर हो गई थीं, और उसके मुकाबले में तुम्हारा घर अंधेरा लगता है। तुमदेख ही नहीं सकते, तुम्हें ऐसा लगता है जैसे रात हो। केवल तुम प्रतीक्षा करो, आराम सेकुर्सी पर बैठ जाओ और कुछ सेकंड बाद ही आँखेंतालमेल बिठा लेंगी। अब इतना अंधेरा नहीं लग रहा, थोड़ी-सी अधिक रोशनी है...तुम एक घंटे आराम कर लो, और हर चीज रौशन हो जायेगी। फिर वहाँ अंधेरा रह ही नहींजायेगा। यदि ह्यूम ने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की होती तो अंधेरा भी गायब हो जाता। क्योंकि तुम बाहर सूरज की गर्म रोशनी में कई जन्मों सेरह रहे हो, तुम्हारी आँखें तेज रोशनी की अभ्यस्त हो गई हैं। उन्होंने लचीलापन खो दिया है। उन्हें लयबद्ध होने की जरूरत है। जब कोई घर के अंदर आता है तो थोड़ा समय लगता है। थोड़ा सा समय, थोड़ा सा धीरज चाहिये। जल्दबाज मत बनो।
जल्दबाजी में कोई भी अपने आपको नहीं जान सकता। यह गहरे में बहुत-बहुत प्रतीक्षा करने वाली बात है। अनंतधैर्य की आवश्यकता है धीमे-धीमे मिटेगा। फिर बिना स्रोत का प्रकाश प्रकट होगा। उसमें कोई लौ या ज्योति नहीं है, नतो कोई दिया जल रहा है, वहाँ और न वहाँ सूरज है। भोज जैसी हलकी रोशनी है, रात जा चुकी है और सूरज अभी निकला नहीं है...या संध्या समयगोधूलि की बेला हो जैसे, जब सूरज अस्त हो चुका है और रात अभी आई नहीं है। इसीलिये हिन्दू अपनी प्रार्थनाके समय को संध्या कहते हैं। संध्या का अर्थ होता है सूर्योदय से पूर्व तथा सूर्यास्त के उपरान्ता धीमा प्रकाश स्रोत रहित प्रकाश।
जब तुम अंदर जाते हो, तोतुम्हें बिना स्रोत का प्रकाश मिलता है। पहली बार तुम अपने-आपको समझने की शुरूआत करते हो-कि तुम कौन हो, क्योंकि तुम वही प्रकाश हो। तुम वही सूर्योदय से पूर्व तथा सूर्यास्त के उपरान्त होने वाला मद्धिम प्रकाश हो। तुम वही संध्या हो। वही शुद्ध पारदर्शिता हो। तुम वही बोध ज्ञान हो। वही ज्ञान हो, जहाँ द्रष्टाऔर दृश्य मिट जाते हैं, और केवल प्रकाश रह जाताहै।
~ओशो